★ कहां से और कैसे आया बच्चों की जुबान यह “क्याही”
अंबिकापुर। क्याही.. क्या ही करेगा वो..! क्याही करेंगे वहां जाकर..! क्याही कर लेगा वो..! ऐसे शब्द इन दिनों नई पीढ़ी की जुबान पर आने लगे हैं। इसे सुनकर हिंदी के जानकार अभिभावक अपने बच्चों से सवाल भी करने लगे हैं। अभिभावकों को यह भी लग रहा है कि टेलीविजन में कई सीरियल चल रहे हैं जिसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है, हो सकता है बच्चे टीवी सीरियल देखकर यह सीख रहे हो..! पर ऐसा नहीं है..! जो बच्चे टीवी नहीं देखते वह भी इन शब्दों का उपयोग इन दिनों खूब कर रहे हैं। यही नहीं आइएएस, आइपीएस अधिकारियों की जुबान पर भी यह “क्याही” छाया हुआ है..!
सरगुजा के लेखक और साहित्यकार रमेश द्विवेदी ने इस “क्याही” को बड़े ही अनोखे तरीके से सोशल मीडिया पर लिखा है। रमेश द्विवेदी के इस पोस्ट पर खूब विचार आ रहे हैं। आइए जाने साहित्यकार व लेखक रमेश द्विवेदी ने “क्याही” पर क्या लिखा है..!
“क्याही”
हमारे ज़माने में नहीं चलता था, न हमारे शिक्षक, न सहपाठी, न परिवार के लोग न ही रिश्तेदार इसका प्रयोग करते थे। यहाँ तक कि किसी बड़े, मझोले या छोटे साहित्यकार जिन्हें हमने पढ़ा ने भी इस पदबंध का इस्तेमाल कहीं नहीं किया। प्रेमचंद, प्रसाद, रेणु, नागर, कमलेश्वर, अमरकांत से लेकर उदयप्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति और चंदन वंदन पाण्डेय तक सब इससे अपरिचित ही लगे।
जी हाँ, जिस प्रयोग की बात कर रहा हूँ वह है ‘क्याही’.
‘क्याही करेंगे जा कर?’
‘क्याही देखना है?’
‘क्या ही हो पायेगा?’
पहले उपरोक्त वाक्यों को यूँ बोला जाता था –
‘ जा कर ही क्या करेंगे?’
‘देखना ही क्या है?’
‘कुछ न हो पायेगा’ या ‘हो ही क्या पायेगा’
पर आज तेजी से नई पीढ़ी ‘क्याही’ युक्त वाक्य संरचना को अपना रही है, फिलहाल यह बोलचाल में है पर जल्दी ही मुद्रित स्वरूप में भी आएगा। यही सही भी माना जायेगा, ठीक उसी तरह जैसे छत्तीसगढ़ में ज्यादातर लोग चावल को ‘ चांवल’, मित्रो को ‘मित्रों’ लिखते और सही समझते हैं.
‘क्याही’ की हिन्दी भाषा में घुसपैठ बड़े गुपचुप और पोशीदा ढंग से हुई, पर समाज हो या भाषा ये घुसपैठिये कब स्थायी निवासी बन जाते हैं पता ही नहीं चलता।
तो मिस्टर क्याही! मैं रमेश द्विवेदी, एतद्दद्वारा तुम्हारे आगमन, अस्तित्व और तीव्र संचरण को रेखांकित करते हुए तुम्हारा आत्मीय और दयनीय रूप से वंदन, अभिनंदन करता हूँ।
और क्याही कर सकता हूँ ..!